हम सब आवरणों में जीते हैं, एक नकली दुनिया में, एक झूठ में। सुनने में कड़वा लग रहा होगा पर ज़रा रूककर, ठहरकर अपनी ज़िंदगी में झांकेंगे और निष्पक्षता से विचार करेंगे तो यही पाएँगे। अच्छा एक बात बताइए, मान लीजिए आप अपने ऑफिस में हैं। आपकी आँखें स्क्रीन पर हैं, पर विचार कहीं और हों, मन कहीं और ही हो, आप कुछ सोच रहे हों, और ठीक उसी समय आपका बॉस बगल से गुज़रे तो आप क्या करते हैं? कुर्सी पर तनकर बैठ जाएँगे, कीबोर्ड पर जोर से बटन दबाकर कुछ ज़रूरी काम करने का अभिनय करेंगे, है न? साइकोलॉजी की भाषा में इसे हॉथोर्न प्रभाव कहते हैं जिसमें व्यक्ति अपने व्यवहार के एक पहलू को, अपने द्वारा देखे जाने के प्रति जागरूकता के रिस्पॉन्स में परिवर्तित या संशोधित कर लेते हैं।
अब ज़रा सोचिए, ये आपने क्या किया और क्यूँ किया। क्या उस क्षण में हम अपने प्रति पूरे ईमानदार थे? उस बीस सेकेंड के अभिनय की ज़रूरत क्यों पड़ी? क्या हो जाता अगर वो नहीं किया जाता? संभवत: कुछ भी नहीं। पर आप ने एक झूठ बोला स्वयं से, आपको दिखाई नहीं दिया हो वो अलग बात है। दो बातें हो सकती हैं उस कर्म के पीछे— या तो भय कि अगर बॉस के सामने ठीक से काम करता नहीं पाया गया तो कहीं नौकरी से नहीं निकाल दिया जाऊँ, या लालच कि शायद प्रमोशन मिल जाए अगर बॉस को मेहनत से काम करता दिख जाऊँ। तीसरा कोई कारण नहीं हो सकता। हो सकता है आप इस बात से सहमत न हों पर भय और लालच की वृत्तियाँ हमारे भीतर इतनी गहराई में समाई होती हैं कि हमें पता भी नहीं चलता।
सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक हम कुछ न कुछ झूठ ही बोल रहे होते हैं, प्रिटैन्ड (ढोंग) ही कर रहे होते हैं। जिम जाएँगे बीस मिनिट के लिए लेकिन लोगों के सामने बताते हैं कि एक घंटा वर्क आउट करते हैं। घर में खूब चटपटा और मसालेदार खा लेंगे लेकिन बाहर कोई पूछे तो बोल देंगे कि आजकल हैल्दी खाना खा रहे हैं। बेटे का किसी बड़े पद पर चयन हो गया तो तमाम रिश्तेदारों को फोन लगाकर खबर देंगे। कोई पूछे तो कहेंगे कि हम तो बस खुशियाँ बांट रहे हैं पर दिमाग में कुछ और ही चल रहा होता है। थोड़ी अटैंशन मिल जाए, थोड़ी वाहवाही हो जाए, चार लोग पूछें, तारीफ़ कर दें; बस यही चल रहा होता है। दूसरों से बड़ा और अलग दिखने की ही तो चाहत रहती है न? दूसरों को प्रभावित करने और उनके सामने बड़ा दिखने की इच्छा ही बताती है कि खुद को छोटा मान रखा है। छोटा ही तो बड़ा होना चाहता है न? जो पहले ही बड़ा है उसे क्या ज़रूरत होगी?
पर हम बाहर की एक झूठी दुनिया में जीते हैं और बड़ी जल्दी उससे प्रभावित हो जाते हैं। समाज और दुनिया सुख की जो परिभाषा हमें देती है, हम उसे मान लेते हैं और उसे जीने भी लगते हैं क्योंकि हमारी अपनी कोई परिभाषा है ही नहीं, हमारा कुछ अपना, कुछ निजी है ही नहीं। हमारे जीवन के फैसले भी बाहर के प्रभावों से ही आते हैं। कैसा घर होना चाहिए, कौन सी गाड़ी होनी चाहिए, कौनसा फोन होना चाहिए, कितनी महंगी शादी होनी चाहिए— ये सब बाहर की दुनिया तय करती है और उसी के साथ जन्म होता है तुलना और ईर्ष्या का, एक दूसरे से बड़ा होने की होड़।
विडंबना ये है कि बड़ा दिखने की कोशिश में हम और छोटे हो जाते हैं। दूसरों को प्रभावित करने की चेष्टा ही हमारी क्षुद्रता का प्रदर्शन है। थोड़ा रूककर, शांति से विचार करें तो अपनी ये छिपी हुई साजिश नज़र आ जाएगी। आवरण तो प्रमाण होता है हमारी आंतरिक बेईमानी का। कभी किसी छोटे बच्चे के व्यवहार को गौर से देखिएगा। बच्चे के व्यवहार में कोई ढोंग, कोई आवरण नहीं होता। वो जैसा है वैसा है। चोटी लगी तो रोता है, दिखावा नहीं करता कि नहीं लगी। वयस्क होने की प्रक्रिया में हम बहुत सारी ऐसी चालाकियाँ सीख लेते हैं जो हमें और छोटा बना देती हैं। वास्तव में हमें किसी बाहरी आवरण की कोई ज़रूरत है ही नहीं क्योंकि बड़ा होना हमारा स्वभाव है, वो हम हैं ही। ज़रूरत है उस छुटपन को नकारने की जो हमने पकड़ ली है।